दिनेश श्रीनेत-
किसी भी व्यक्ति की धार्मिक पहचान से क्या आशय है? यदि इसे सरल भाषा में कहना चाहें तो वह अपनी एक ऐसी सामूहिक पहचान के साथ खड़ा होना चाहता है जिसकी अर्थवत्ता मनुष्य की भौतिक नहीं बल्कि आध्यामिक जरूरतों और उसकी मानवीय चेहरे से जुड़ी है. इस लिहाज से किसी भी धर्म का वरण करने वाले को उसके सकारात्मक पक्ष से जुड़ा होना चाहिए. यानी हिंदू धर्म की पहचान पुरोहितवाद और आडंबर में नहीं बल्कि उसके समावेशी स्वरूप में हो, जिसमें समस्त जगत, मनुष्य, पशु-पक्षी, वनस्पति, आकाश समा जाते हैं.
ईसाई धर्म की पहचान चर्च जैसी संस्थाओं की कट्टरता और एकाधिकार में नहीं बल्कि जीसस क्राइस्ट के जीवन से मिली करुणा और त्याग की भावना में हो. इसलाम को परदे और और सजा के तरीकों से नहीं बल्कि भाईचारे की भावना रखने वाले और अन्याय पर ख़ुदा से डरने वाले लोगों से पहचाना जाए. दुर्भाग्य से ज्यादातर कौमों ने धर्म को हमेशा उसके नकारात्मक पक्ष से स्थापित करने पर जोर दिया.
मध्यकाल में ये विश्वास एक-दूसरे से टकराते थे, जिनका नतीजा युद्ध और कत्लेआम होता था. बदलते वक्त और कारोबारी जरूरतों की वजह से अलग-अलग आस्थाओं वाले लोगों को एक साथ होना पड़ा. किंतु सांस्कृतिक भिन्नताएं और आस्थाएं हमेशा टकराव की वजह बनती रहीं. जितना अधिक लोग एक-दूसरे के करीब आए उतनी ही अपनी अस्मिता को लेकर बैचनी बढ़ती गई.
बीते 25 वर्षों में यह बेचैनी जैसे किसी सामूहिक मनोरुग्णता का रूप लेती जा रही है. सैमुअल पी. हंटिंगटन ने 1996 की पुस्तक ‘द क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन एंड द रीमेकिंग ऑफ वर्ल्ड ऑर्डर’ में यह स्थापना दी कि शीत युद्ध के बाद के संघर्ष वैचारिक मतभेदों के बजाय सांस्कृतिक कारणों से सबसे अधिक बार और हिंसक रूप से होंगे.
बरसों पहले जब यह किताब आई थी तो भारतीय बुद्धिजीवियों ने इसकी आलोचना की थी. करीब 30 साल बाद हम जिस तरह सार्वजनिक जीवन में राजनीतिक-सांस्कृतिक तनाव महसूस कर रहे हैं, जिस तरह धार्मिक पहचान का उभार दिख रहा है, और इसकी जमीन पर जिस तरह से दक्षिणपंथी ताकतों का उदय होता दिख रहा है, हंटिंगटन की स्थापनाएं सामने घटित होती दिख रही हैं.
जब किसी समुदाय की धार्मिक पहचान को चुनौती मिलती है तो वह उसे और ज्यादा ताकत से अंगीकार करता है, भले ही वह उसके समुदाय के लिए शुभ न हो.
2014 के बाद समाज, राजनीति और संचार माध्यमों में आई धार्मिक कट्टरता के उभार में इसे देखा जा सकता है, जहां जन के बीच हिंदू धर्म की स्वीकार्य भावना के विपरीत एक उग्र और आक्रामक धार्मिक पहचान पर जोर दिया जाने लगा. इसी तरह से क्योंकि इसलाम में व्याप्त कुरीतियों पर बोलने वाले उनके अपने समाज में बहुत कम हैं तो बाहरी आलोचनाओं को समुदाय के प्रति भय, अविश्वास और नफरत के रूप में डिकोड किया गया.
पश्चिम की राजनीति में सबसे उपयुक्त उदाहरण डोनाल्ड ट्रंप का है, वह बिना किसी सैन्य या प्रशासनिक अनुभव वाले अमेरिका के ऐसे राष्ट्रपति बने जिन्हें सिर्फ उनकी नस्लवादी और स्त्री-द्वेषी टिप्पणियों के कारण जाना जाता था. एक ऐसे राष्ट्रवादी बने जो लोगों के बीच लोकप्रिय फैसलों, संरक्षणवाद और अलगाववाद के जरिए लोकप्रियता हासिल करने का प्रयास करता है. ट्रंप ने मुसलिम बहुल देशों के नागरिकों की यात्रा पर प्रतिबंध से लेकर पर्यावरण नीतियों को कमजोर करने जैसे फैसले लिए.
कुल मिलाकर हम उस जगह पर आ गए हैं, जहां नकारात्मकता ही सबसे बड़ा मूल्य बनता जा रहा है, चाहे वह धार्मिक पहचान से जुड़ा हो या राष्ट्र की पहचान से. चिंताजनक बात यह है कि ऐसा क्यों हैं? क्या इसके पीछे कोई भय है? अपनी सांकृतिक पहचान खो बैठने का? यदि यह भय है तो समुदाय और मौजूदा राष्ट्र अपनी सकारात्मक पहचान को क्यों नहीं धारण करते.
इसमें सबसे रोचक यह है कि बहुत सारे लोग मध्यकाल का हवाला देते हुए यह माहौल बनाते हैं कि मुसलिम कम्युनिटी एक हमलावर और बर्बर कौम रही है. वे भूल जाते हैं कि अरबी, फ़ारसी और उर्दू जैसी बेहद शाइस्ता ज़ुबान, गज़ल व रुबाई जैसी नाजुक साहित्यिक विधा, मध्यपूर्व से लेकर यूरोप तक का शानदार स्थापत्य, भोजन, कशीदाकारी और तमाम तरह की कलाओं का जन्म और संरक्षण इसी कौम में हुआ. वहीं मध्यकाल में यूरोप से लेकर दुनिया के हर हिस्से के इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो पता चलेगा कि वह वक्त हिंसा से भरा हुआ था. सत्ता को बनाए रखने के लिए हिंसा ही एकमात्र उपाय था. अशोक तक को अपने सारे सौतेले भाइयों की हत्या करनी पड़ी थी.
वापस पहचान के मुद्दे पर लौटते हैं.
धर्म कहीं न कहीं भय का दोहन करता है. वह दरवाजे बंद करता है, मगर संस्कृति दरवाजे खोलती है. नृत्य अपने आप में सुंदर है मगर हर नर्तक चाहता है कि दुनिया उसके नृत्य को देखे, संगीतकार के संगीत को सुना जाए, कलाओं को सराहा जाए. सीखा जाए और बांटा जाए. यदि इतिहास की कोई चक्रीय अवधारणा है तो हर सभ्यता पतन की ओर जाती है और हर पतन के बाद पुर्नजागरण होता है.
आधुनिक सभ्यता भी शायद अपने अंत की ओर बढ़ रही है. जैसा कि फ्रांसिस फुकुयामा अपनी किताब दि एंड ऑफ हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन में मानते हैं कि पश्चिम का उदारवादी लोकतंत्र ही अंतिम विकल्प रह गया है और मा्नवता इतिहास के अंत की तरफ बढ़ चुकी है.
सवाल यह है कि क्या यह यूरोप के पुनर्जागरण की अनिवार्य परिणति है? इसी आन्दोलन के द्वारा पश्चिम के राष्ट्र मध्ययुग के अंधेरे से निकलकर आधुनिक युग के विचार और जीवन-शैली अपनाने लगे. यूरोप के इसी रेनेसां की वजह से सारी दुनिया में एक वैज्ञानिक चेतना का विकास हुआ. इसके आगे क्या?
अज्ञेय का एक लोकप्रिय निबंध है ‘चेतना का संस्कार’, इस निबंध में जहां वे मनुष्य की भौतिक-आर्थिक उपलब्धियों के बरअक्स चेतना के परिमार्जन पर जोर देते हैं, यह भी बताना चाहते हैं कि मनुष्य के विकास का अगला चरण उसकी चेतना के विकास से जुड़ा होगा. यानी एक समय पर बाद भौतिकतावाद की दौड़ भी थकाने लगेगी. इसका सबसे बेहतर उदाहरण पारिस्थितिकीय असंतुलन है, जो एक हाइपोथीसिस से वास्तविक खतरा बनकर सामने खड़ी है.
चेतना का यह ‘संस्कार’ किसी आध्यात्मिक जागरण के चलते नहीं बल्कि सामूहिक मोहभंग के जरिए सामने आएगा. हंटिंगटन की किताब आने से लेकर वतर्मान समय तक, मोहभंग की प्रक्रिया तो आरंभ हो चुकी है, शायद मनुष्य को अपनी अस्मिता, अपनी पहचान और अपने सांस्कृतिक संकट के लिए बाहरी प्रलोभनों और आस्थाओं की बजाय खुद की तरफ देखना होगा.
अपनी चेतना और अपनी आत्मा की रंगहीन चादर की तरफ.