संजय कुमार सिंह
आज बैसाखियों का महत्व समझिये और परीक्षा नहीं करा पाने वाली इस सरकार के जो दावे ईवीएम के समर्थन में किये जाते हैं उन्हें याद कीजिये, ईवीएम जिन्दा है कि मर गया, भी
आज दो बड़ी खबरें हैं। पहली तो एनटीए के प्रमुख को हटाये जाने और परीक्षा में सुधार के लिए इसरो के पूर्व प्रमुख के नेतृत्व में पैनल बनाये जाने की। इससे संबंधित एक और खबर है, नीट की जांच सीबीआई को दिये जाने की। दूसरी खबर जीएसटी कौंसिल के फैसले हैं जो जीएसटी के जरिये की गई तानाशाही और मनमानी को सुधारने वाले हैं। इनमें रेलवे की कुछेक सेवाओं को जीएसटी से मुक्त करना शामिल है। कहने की जरूरत नहीं है कि अखबारों के शीर्षक ऐसा आभास नहीं दे रहे हैं। उदाहरण के लिए, हिन्दुस्तान टाइम्स का शीर्षक है, संस्था को ओवरहॉल करने के लिए केंद्र ने एनटीए के प्रमुख (डीजी) को हटाया। आप जानते हैं कि इसे अध्यक्ष प्रदीप कुमार जोशी भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिष से जुड़े रहे हैं। 2017 में बनाए गये एनटीए ने जैसे-तैसे काम किया। अब भी उसका बचाव करने की पूरी कोशिश हुई। बहुमत नहीं है तो अंध समर्थन भी नहीं है और मजबूरी में नीट घोटाले की जांच सीबीआई से करानी पड़ रही है (10 साल में शायद कोई नहीं थी, रेल दुर्घटना को छोड़कर)। अखबार अभी भी बचाव और सहायता में हैं यह अलग मुद्दा है। आज जो खबर है उसी की चर्चा करूंगा। इसमें भी हेडलाइन मैनेजमेंट है।
आप जानते हैं कि रेलवे सरकारी सेवा है जिसका काम रेल सेवा मुहैया कराना था और है। उसे जीएसटी के तहत लाकर उसपर जनता से टैक्स वसूलने और सरकार को सौंपने का नया काम छोप दिया गया था। इससे रेल यात्रा मंहगी हुई और जीएसटी मद में वसूली बढ़ी। सरकार इसे अपनी कार्यकुशलता, बेहतर अर्थव्यवस्था और विकास के प्रभाव के रूप में प्रचारित करती रही। रेल सेवाओं को जीएसटी के तहत लाने के लिए कई नये नियम बनाये गये और कई संशोधन किये गये थे। सरकार को टैक्स चाहिये यह सही है पर अपने ही विभागों और स्वायत्त संस्थाओं को टैक्स वसूलने के काम में लगा दे तो उनका मूल काम प्रभावित होगा। हाल में खबर थी कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार चुनाव हारने वाले उम्मीदवार अगर ईवीएम की जांच मांग करेंगे तो उन्हें 40 हजार रुपये की फीस और उसपर जीएसटी लगेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि चुनाव आयोग का काम सरकार की कमाई कराना और चुनाव लड़ने वालों या हारने वालों या ईवीएम पर शक करने वालों को उपभोक्ता मानना और उनसे वसूली करना नहीं है। पर 40 हजार की फीस और उसपर जीएसटी यही है। रेलवे की सेवाओं पर जीएसटी लोकप्रिय सरकार को बहुमत मिलने पर लागू हुआ था और जैसा प्रचार था, चार सौ पार पर संविधान बदलने की तैयारी थी। अब स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने का नफा-नुकसान जनता को देखना और समझना है।
जहां तक सरकार के काम और जनसेवा की बात है, 2017 में बने एनटीए का काम हमने देखा। उसे मिल रहे संरक्षण को हम जानते हैं और अब न सिर्फ नीट 2024 की अनियमितताओं की जांच सीबीआई से कराई जायेगी बल्कि इसके प्रमुख को हटा दिया गया है और सबसे दिलचस्प है, इसरो के पूर्व प्रमुख के नेतृत्व में पैनल बनाया गया है। मुझे नहीं पता और आज खबरों से भी पता नहीं चला कि 2017 में एनटीए बनाने से पहले क्या तैयारियां की गई थीं और अब पूर्व इसरो प्रमुख परीक्षा कराने के अपने किन अनुभवों का इस्तेमाल कर अपनी सेवाएं देंगे। जो भी हो, यह मेरा विषय नहीं है। सच यही है कि नरेन्द्र मोदी के पहले वित्त मंत्री कानून के जानकार थे, शिक्षा मंत्री के पास डिग्री नहीं थी। आज ही जीएसटी कौंसिल ने कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लिये हैं पर एनटीए और नीट की खबर के कारण इसे वह महत्व नहीं मिला है जो किसी और दिन मिल सकता था। जीएसटी के मामले में मनमानी और जबरदस्ती का यह आलम था कि किसी भी व्यवसाय में एक निश्चित राशि तक का कारोबार करने वालों को टैक्स-रिटर्न आदि के पचड़ों से राहत दी जाती है। पर जीएसटी में कई तरह के काम, खासकर वो जो कंप्यूटर से किये जाते हैं, के लिए पंजीकरण आवश्यक था। कई साल कोई सुनवाई नहीं हुई। लागू किये जाने के बाद गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान विरोध किये जाने पर इसमें छूट मिली और फिर तो विपक्षी दलों के सदस्य शामिल होते गए तो इसमें छूट मिलती गई।
आज द हिन्दू में जीएसटी की खबर का शीर्षक है, “रेलवे सेवाओं, हॉस्टल में रहने पर जीएसटी नहीं”। इससे लगता है कि रेलवे की सभी सेवाओं पर से जीएसटी वापस ले लिया गया है। कायदे से ऐसा ही होना चाहिये पर नवोदय टाइम्स के अनुसार, प्लैटफॉर्म टिकट होगा सस्ता, सोलर कुकर महंगा। यहां खबर में लिखा है कि प्लैटफॉर्मट टिकट, डोरमेट्री, वेटिंग रूम, क्लॉकरूम और बैटरी चालित वाहनों के इस्तेमाल जैसी सुविधाओं को जीएसटी से बाहर कर दिया गया है। इसके बाद रेल टिकटों पर जीएसटी लगेगा कि नहीं इस खबर से स्पष्ट नहीं हो रहा है। दूसरी ओर, द हिन्दू की खबर के अनुसार छोटे कारोबारों के लिए अनुपालन के उपायों को आसान किया गया है, 20,000 रुपए प्रतिमाह तक की हॉस्टल की जगह जीएसटी मुक्त होगी। जो भी हो, पूरा विवरण अखबारों में नहीं छप सकता है और ऐसा भी नहीं लगना चाहिये कि सरकार ने मजबूरी में अपने ही अच्छे और जरूरी फैसलों को वापस ले लिया है। अगर ऐसा नहीं होगा तो इसपर चर्चा भी नहीं होगी। यह सब हेडलाइन मैनेजमेंट है पर आज वह मुद्दा नहीं है।
इसीलिये, नीट और एनटीए की खबर भी ऐसे ही छपी है। लेकिन यहां इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिये कि शिक्षा मंत्री शुरू में कहते रहे कि प्रश्नपत्र लीक नहीं हुआ है और अब सीबीआई जांच के आदेश दे दिये गये। इस संबंध में आज नवोदय टाइम्स में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का बयान, “पारदर्शी, छेड़छाड़ मुक्त और त्रुटि रहित परीक्षाएं एक प्रतिबद्धता है (इसीलिए एनटीए बनाया गया होगा)। अब विशेषज्ञों की एक उच्च स्तरीय समिति का गठन परीक्षा प्रक्रिया की दक्षता में सुधार लाने, सभी संभावित कदाचारों को समाप्त करने, डेटा सुरक्षा प्रोटोकोल को मजबूत करने और एनटीए में सुधार लाने के लिए उठाये गये कदमों की श्रृंखला में यह पहला कदम है” उल्लेखनीय है। इसमें गौरतलब है कि मंत्री जी खुद कह रहे हैं कि यह पहला कदम एनटीए के गठन के सात साल बाद तब उठाया गया है नीट घपला संभाला नहीं जा सका। इसपर राहुल गांधी ने जो कहा है वह भी नवोदय टाइम्स में छपा है। उन्होंने कहा है, “अब नीट-पीजी भी स्थगित! यह नरेन्द्र मोदी के राज में बर्बाद हो चुकी शिक्षा व्यवस्था का एक और दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण है। भाजपा राज में छात्र अपना करियर बनाने के लिए पढ़ाई नहीं, अपना भविष्य बचाने के लिए सरकार से लड़ाई लड़ने को मजबूर हैं। अब यह स्पष्ट है – हर बार चुपचाप तमाशा देखने वाले मोदी पेपर लीक रैकेट और शिक्षा माफिया के आगे पूरी तरह से बेबस हैं।“
द टेलीग्राफ में इसका शीर्षक है, एजेंसी प्रमुख को हटाया गया, नीट पीजी को टाला गया। एनटीए घोटाले के बाद चेहरा छिपाने की कार्रवाई। इसके साथ सिंगल कॉलम की खबर है, नीट के पेपर लीक मामले में देवघर में छह गिरफ्तार। अब यहां दो तथ्य याद करने लायक है। एक तो शिक्षा मंत्री का यह कहना कि प्रश्नपत्र लीक नहीं हुआ है और दूसरा यह कि देवघर फर्जी प्रमाणपत्र के आरोपी भाजपा सांसद निशिकांत दुबे के पड़ोस का शहर है और निकटतम हवाईअड्डा। दुबे के खिलाफ फर्जी सर्टिफिकेट के मामले की जांच नहीं हो रही है जबकि महुआ मोइत्रा की सदस्यता खत्म कर दी गई थी। संसद में गाली ग्लौच करने वाले भाजपा के दूसरे सांसद के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं हुई और अब तो वे सांसद भी नहीं रहे जबकि महुआ मोइत्रा फिर जीत कर आ चुकी हैं। द हिन्दू का शीर्षक भी सरकार को काम करता दिखाने वाला है। उपशीर्षक के साथ तो जो पढ़े और सरकार को नहीं जानता हो वह यही समझेगा कि 56 ईंची सरकार ने ना खाऊंगा ना खाने दूंगा के अंदाज में कार्रवाई की है जबकि मामला ना पढूंगा ना पढ़ने दूंगा, परीक्षा तो होने ही नहीं दूंगा जैसा हो गया है।
इस लिहाज से टाइम्स ऑफ इंडिया के शीर्षक में एक्जाम जिट्टर्स (परीक्षा से परेशानी, परीक्षा डर जोड़ देने से मामला जो है उसका पता चल रहा है। हालांकि, परीक्षा रद्द नहीं करने के सरकार के नजरिये का प्रचार भी है। इसमें कहा गया है कि जांच से पता चला है कि पेपर लीक का मामला स्थानीय है और परीक्षा रद्द करने की जरूरत नहीं है। सुनने में यह तर्क और विचार भले सही लगे पर मुद्दा यह है कि लीक हुआ ही क्यों और जब लीक हो गया तो आज के समय में प्रश्नपत्र को देशभर में पहुंचने में कितना समय लगना है। अगर कुछ खास ही लोगों को लीक किया जाये, पता नहीं चलेगा तो आगे भी लीक होने की आशंका रहेगी। जबकि जरा सा भी शक होने पर परीक्षा रद्द कर दिये जाने से अगली बार ना कोई लीक करेगा और ना पैसे देर कोई प्रश्न पत्र लेगा। व्यवस्था बनाये रखने और लीक रोकने के लिए रद्द किया जाना ही जरूरी है। सख्ती दिखाना भी अपनी जगह महत्व रखता है।
यहां यह दिलचस्प है कि सीएसआईआर-नेट की परीक्षा भी टाल दी गई है। ठीक है कि परीक्षा हुई नहीं है और लीक होने की खबर हो तो परीक्षा टाल दी जाये तो परेशानी कम होती है पर लीक तो हो ही रहा है और परीक्षा की पवित्रता बनाये रखने के लिए जरूरी है कि लीक न हो। और भी परीक्षाएं टाली गई हैं। पर शिक्षा मंत्री ने कहा है और टाइम्स ऑफ इंडिया ने जिन मुद्दों को हाइलाइट किया है उसमें कहा गया है कि सीएसआईआर-नेट की परीक्षा सिर्फ इसलिए टाली गई है कि नीट के 1563 उम्मीदावरों की परीक्षा भी साथ ही होनी है। मेरा मानना है कि इतने बड़े देश में व्यवस्था ऐसी भी नहीं होनी चाहिये कि 1563 बच्चों की परीक्षा के लिए संभारतंत्र की कमी पड़ जाये और दो परीक्षाएं एक साथ नहीं हो सकें। खास कर तब जब एक देश एक चुनाव का सपना दिखाकर दो महीने में चुनाव होता है। प्रश्न पत्र लीक हो जाते हैं पर दावा किया जाता है कि ईवीएम हैक नहीं हो सकता है, सुरक्षित है। जहां और जैसे ईवीएम रखे जाते हैं वैसे ही प्रश्नपत्र क्यों नहीं रखे जाते हैं। सरकार जब समर्थन और बहुमत के आधार पर काम करे तो सलाह-सुझाव का कोई मतलब नहीं है। और यह अब पुरानी बात हो गई।