शशि शेखर-
मीडिया के दोस्तों, यह पोस्ट ख़ास आपके लिए…. रोहित सरदाना, विकास शर्मा, मयंक सक्सेना के बहाने….उम्र (मौत) क्या ईश्वर तय करते है…?
रिपब्लिक हिन्दी के एंकर विकास शर्मा, आज तक के रोहित सरदाना और अब मयंक सक्सेना. तीनों की पिछले तीन साल में हुई मौत अप्राकृतिक है. कहीं से नहीं लगता कि ईश्वर ने उनके लिए मौत की तारीख निश्चित की थी. तीनों युवा, ऊपर से तंदुरुस्त दिखने वाले. लेकिन, क्या हुआ कि उनके दिल ने साथ देने से मना कर दिया? क्या उनकी मौत में ईश्वरीय सहमति थी? मुझे यकीन नहीं होता.
करीब 7 या 8 चिरंजीवी आज भी हमारे सनातन धर्म में माने जाते है. मसलन, हनुमान जी, कृपाचार्य, अश्वत्थामा आदि. आजीवन ब्रह्मचारी रहे भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान था. अब, हम अपने आसपास निगाह डालें तो पुरानी पीढ़ी के 80-90 साल के वृद्ध बेहतर हालात में मिल जाएंगे. और हम यह कहते भी है, पुराना खानपान का असर है. तो नए खानपान में ऐसा क्या मिल गया है, नए जमाने में ऐसी क्या बात आ गयी है कि राह चलते, अस्पताल तक जाते-जाते युवा मरे जा रहे हैं.
ग्रंथों में कहा गया है कि मृत्यु के 101 स्वरूप होते है. लेकिन, इसे मुख्य रूप से 8 प्रकार में बांटा गया है. बुढ़ापा, रोग, दुर्घटना, अकस्मात आघात, शोक, चिंता ओर लालच आदि इसके मुख्य स्वरूप है. इसमें से बुढापा को छोड़ दे (जो एक नेचुरल प्रोसेस है) तो अन्य कारण एक्सटर्नल (बाहरी प्रभाव) कॉज माने जा सकते है. इसका माने यह हुआ कि हम रोग से बच सकें, एक्सीडेंट से बच सके, फ्रस्ट्रेशन, डिप्रेशन से बच सके तो शायद हम लंबा जी सकते हैं. शायद! क्योंकि आज मृत्यु शोक का भले कारण हो लेकिन हमारे पूर्वज जब पेड़ से उतर कर धरती पर पहली बार आए थे तो उन्हें पता ही नहीं था कि कब किस पल किधर से शेर या जंगली जानवर आ कर उन्हें खा जाएगा. शायद, तब शुरुआती दौर में मृत्यु पर शोक मनाने की न इंसानों में सहालियत थी न जरूरत. तब रिश्ते नहीं थे, तब संवेदना का वो स्तर शायद नहीं था! लेकिन, आज है क्या?
विकास शर्मा का अंतिम वीडियो देखिये. कितना दुखी है वो. लेकिन, उसे टीवी स्क्रीन पर समाचार पढ़ते देखिये. लगता था, राहुल गांधी उसके सामने आ जाए तो कच्चा चबा जाएगा. निश्चित ही वह नाटक था. विकास ने इस बात को भी कबूला था अपने अंतिम वीडियो में. लेकिन, यह सब विकास किसके लिए कर रहा था. बदले में उसे क्या मिल रहा था? डिप्रेशन, फ्रस्ट्रेशन. यानी, कर्ता स्वयं अपने रोगों का कारण था. तो भोक्ता कौन होगा? ईश्वर? नहीं. याद रखिये, हमारा एक हर काम हमारा खुद के द्वारा तय होता है. हम स्वयं कर्ता हैं. हमारे चुने गए कर्मों के लिए ईश्वर कहीं से जिम्मेवार नहीं है. गीता में भी भगवान कृष्ण पूरा ज्ञान देने के बाद अर्जुन से कहते हैं,” पार्थ, मैंने सब कुछ बता दिया, लेकिन अब तुम्हें क्या करना है, इसका चयन तुम्हें खुद करना है.”
अर्थात, युद्ध करने का निर्णय अर्जुन का स्वयं का था. भगवान ने उसे बस उसका कर्म याद दिलाया था. जो अर्जुन अपने धर्म से विमुख हो गया था, उसने गीता का ज्ञान पाने के बाद अपने कर्म का चयन किया. कर्ता अर्जुन था, तो भोक्ता भी वहीं था. कर्ता यदि ईश्वर हो जाए तो भोक्ता फिर कौन होगा? ईश्वर? ऐसा नहीं होता है. तो विकास हो या रोहित सरदाना अपने प्रोफेशनल मजबूरी और मालिक का जेब भरने के लिए वैसे कर्म को चुन रहे थे, जिसके चयनकर्ता वे स्वयं नहीं थे. निश्चित ही मालिकों के दबाव में उन्होंने उन धत कर्म का चयन किया था. लेकिन, कर्ता वे स्वयं थे, इसलिए भोक्ता भी उन्हें ही होना पडा.
मयंक सक्सेना के बारे में कल से सुना. मैं व्यक्तिगत रूप से उनसे नहीं मिला हूँ. लेकिन, उनके काम, उनके तेवर से परिचित हूँ. मीडिया के साथियों, अव्वल तो यह कि कुलदीप नैय्यर साहब बहुत पहले कह चुके थे कि अब पत्रकारिता से क्रान्ति नहीं आने वाली. और यह भी याद रखना होगा कि यह जगत क्रान्तिकारी बदलाव को स्वीकार करता ही नहीं. इसका अस्तित्व ही इवोल्यूशन (क्रमिक विकास) पर टिका है. फिर क्यों खून जलाते हो आप अपना. मैं स्वयं में एक उदाहरण हूँ. पिछले 12-13 सालों में मैंने जितना लिखा-पढ़ा और विचारधारा विशेष (धर्मनिरपेक्ष, जिस पर मैं आज भी कायम हूँ) के समर्थन में ये सब किया, वह सब राजनैतिक रूप से इतना कमतर है, कमजोर है, कि आप किसी बड़े बदलाव की उम्मीद करते हैं तो आपकी बेवकूफी है. बदले में जो मिला, वो क्या बताया जाए.
किसी भी पत्रकार को अगर यह इलहाम हो जाए कि उसके रिपोर्ट से फलां चीज बदल गया, तो समझिये वह यूटोपिया में जी रहा है. और अगर कुछ बदल भी गया तो हिन्दुस्तान जैसे चादर में वह एक रफ़ू से अधिक कुछ नहीं है. चलिए, मान लिया कि आज वैकल्पिक मीडिया हो या मेनस्ट्रीम मीडिया या एक्टिविज्म का फील्ड, सब जगह उग्रता की डिमांड है. रवीश कुमार को बोलते सुनता हूँ, तो डर लगता है उनके लिए. किसी दिन उनके साथ अचानक कोई अनहोनी न हो जाए. कितना गुस्सा, कितनी नफ़रत, कितना द्वेष भरा है इनमें. आखिर वह जहर ही तो है. क्या वह रोग में न बदलेगा? पैसे मिल रहे होंगे. माना, लेकिन क्या सिर्फ पैसे से जीवन चला लोगे? ठीक है, नोएडा के किसी सोसायटी में पेंटहाउस खरीद लोगे लेकिन जो गुस्सा पाल रहे हो अपने भीतर वह किसी न किसी दिन सांप बन कर तुम्हें नहीं डंसेगा, इसकी क्या गारंटी है?
आप कहेंगे, बड़े चालाक लोग है. मैं कहता हूँ, आप अपनी चालाकी से दर्शकों को मूर्ख बना दोगे, लेकिन अपनी आत्मा को कैसे मूर्ख बनाओगे. अपने अवचेतन में इस जहर को भरने से कैसे रोक पाओगे. प्लीज, रवीश थूक दो यह गुस्सा. हिन्दुस्तान का अस्तित्व तुमसे पहले भी था, तुम्हारे बाद भी रहेगा. और यह विनती तमाम उन पत्रकार यूट्यूबर्स से है, जो डालर की लालच में अपनी आत्मा को विषैला बनाते जा रहे हैं. प्लीज, रूक जाइए. थोड़ा रूकिये. एक बार अपनी आती-जाती साँसों पर ध्यान दीजिये. देखिये ये ख़ूबसूरत साँसे कैसे अपनी प्रक्रिया को अंजाम देती है. मुझे पक्का यकीन है, आपने आख़िरी बार अपनी आती-जाती साँसों पर कब ध्यान दिया होगा, आपको भी याद नहीं होगा.
मैं भी यह मानता हूँ कि मृत्यु सत्य है. अटल है. लेकिन, ऐसी मौत? खुद से चुनी गई मौत? खुद से अपनी मौत का सामान चुनना? ये ठीक नहीं है. कोई क्रान्ति नहीं होने वाली. न क्रान्ति की जरूरत है. सत्ता और विपक्ष एक ही सिक्के के दो पहलू है. हर विचारधारा का एक वक्त होता है. वह एक ख़ास समय तक चलता है. फिर स्वयं ही अपनी गति को प्राप्त होता है. समय अनुकूल न हो तो खामोश रहिये. बोलना भी हो तो होश खोकर न बोलिए. द्वेष में न बोलिए. राग-द्वेष से ऊपर उठकर अपनी बात रखिये.
यह स्थिति दोनों तरफ के पत्रकारों की है. जो सत्ता के साथ है, वे भी पगलाए हुए हैं और पागलपन की उनकी सीमा इतनी बढ़ गयी है कि खुद के लिए रोजाना एक कुदाल कब्र खोद रहे हैं. जो दूसरी तरफ है, वे भी यही काम कर रहे हैं. और इस सबमें तमाशा देखने वाला मालिकान और मालिकों का मालिक खुश है. वो सबसे निश्चिन्त है. बेहयाई का आलम यह है कि उसे अपनी हार और अपनी जीत का अर्थ तक नहीं समझ आ रहा है और अपनी सेहत पर उसका रत्तीभर फर्क नहीं पड़ने देता. फिर, आप मेरे पत्रकार मित्रों, क्यों अपना दिल ऐसे बेहया लोगों के लिए जला रहे हो.
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Sant Osh
June 29, 2024 at 1:51 pm
आपने जो अनुभूत किया उससे सौ प्रतिशत सहमत हूं