परवेज अहमद-
लखनऊ पुलिस-यह शब्द भाजपाइयों के फट पड़ने के लिये काफी. विधायक, पदाधिकारी, क्या कार्यकर्ता सब पुलिस की कार्यशैली से ख़फ़ा हैं? यहां तक कहने लगे कि वे सम्मान या किसी आयोजन में जनता को लाने में असमर्थ हैं? लखनऊ पुलिस कब किससे बदतमीजी कर देगी, यह पता नहीं-ऐसे आरोप भाजपा विधायक, नगर अध्यक्ष, मेयर तक के हैं. रहस्य क्या है?
स्वीकारे, न स्वीकारे यूपी पुलिस कमिश्नरी सिस्टम के लिये प्रशिक्षित ही नहीं है. न खुद को इसके लिए तैयार ही कर रही.
अधिकतर कमिश्नर जनता के लिए ‘राजा’ जैसे हैं जो रियाया को दर्शन नहीं देना चाहते, जबकि हकीकत में कमिश्नर को सरकार का ‘PRO’ होना चाहिए सुबह/शाम ओपन फरियादी दरबार लगाना चाहिए. पर, कार्यशैली से सरकार का PR करने के स्थान पर NP की परिस्थिति पैदा कर रहे!
ये किसी एक कमिश्नरी की बात नहीं है, अधिकतर की है. एक कमिश्नर तो पूर्वांचल माफिया की नई पीढ़ी के संरक्षण चल रहे जिम में घंटों ‘वर्क आउट’ करते हैं.
ऐसा नहीं है कि सब ही ऐसे हैं, ढेरों आईपीएस ऐसे हैं जो जनता के लिए हमेशा उपलब्ध, शुरूआती पुलिस कमिश्नर इसी स्वभाव के थे भी!
ज्यों कि त्यों रख दीन्ही चदरिया तोरी
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर
ममता त्रिपाठी-
लखनऊ पुलिस सोशल मीडिया पर लिखने से बुरा भी मान जाती है। फिर फ़र्ज़ी चिट्ठी बनाकर धमकाने भी पहुँच जाती है। हमारे एक मित्र खूब लिखते थे, एक दिन लखनऊ से गाड़ी भरकर वर्दी वाले उनके दरवाज़े पहुँच गए कि नोटिस तामील कराने लाएँ हैं.
नोटिस जब वकील को दिखाई गई तो उन्होंने कहा कि क़ानूनी रूप से चिट्ठी कूड़ा है. ना स्टैम्प, ना तारीख़, ना दस्तख़त मक़सद बस डराना है ताकि लिखना पढ़ना छोड़ दिया जाए. ये तो महज़ एक वाकिया है, ऐसे तमाम होंगे.
इसलिए पुलिस कमिश्नरी सिस्टम पूरी तरह से फेल और सरकारी संसाधनों की बर्बादी है यूपी में.
पंकज मिश्रा-
योगी जी कुछ भी बहुत अच्छा नहीं कर पा रहे हैं (कुछ माफिया लोगों के खिलाफ़ कार्यवाही और बुलडोजर चलवाने के आलावा). लेकिन जब बाबा जी की अखिलेश यादव से तुलना की जाती है तो बाबा जी अखिलेश से बहुत बेहतर काम करते हुए दिखते हैं. भैया जी के समय तो ऐसा लगता था कि गुंडों का राज चल रहा है.
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