नोएडा में रह रहे तमाम पत्रकारों में से अधिकतर लोग किराए के मकान में रहते हैं. घर से दूर. अपनी खुशियों को मारकर सब एडजस्ट करते हैं. और कमाल की बात ये कि हर साल मकान मालिक किराया भी 10 प्रतिशत बढ़ाता है. पर यहां अप्रेजल तक 10 प्रतिशत नहीं होता. इसमें महंगाई दर जिस हिसाब से बढ़ती जा रही है उसकी परेशानियों को तो अभी किनारे ही रखिए.
पिछले साल भी टॉप परफॉर्मर होकर चिंदी पकड़ाए गए. सैलरी का मात्र 4 प्रतिशत (पैसों में बात करें तो मात्र 800 रुपए) वो भी तब दिए गए जब टारगेट से अधिक अंक आए थे. रेस जीतने के बाद भी इनाम के तौर पर अगर चम्मच की जगह उसका पैकेट पकड़ाया जाए तो क्या ही होगा।
फिर भी अगले महीने सैलरी बढ़ कर आई तो समझ ही नहीं आया की इतने पैसे (80,000 पैसे) कहां रखूं. गनीमत रही कि उस वक्त वित्त मंत्री ने टैक्सपेयर्स को छूट दी. नहीं तो मुझे और मेरे मित्रों को इस बात का डर सता रहा था कि कहीं रेड न पड़ जाए. और बैंक अकाउंट में 4 प्रतिशत ज्यादा पैसा देखकर कहीं बैंककर्मियों की आंखें न चौंधिया जाए. कि अरे इस गरीब के पास इतने पैसे आए कहां से?
खैर इस साल भी सारी मेहनत का परिणाम मात्र कुछ प्रतिशत में तोल दिया गया. 10 प्रतिशत तक का आंकड़ा न छू पाया. फिर भी लगातार लोन वालों के फोन आ रहे हैं और चिढ़ा रहे हैं कि अब तो खूब पैसा है अब तो अपनी गाड़ी लेने का सपना पूरा कर ही सकते हो. अब तो अपने सपनों को आकार दे ही सकते हो.
इतने तनाव को देखकर मित्र ने कहा कि छोड़ो सब होता रहता है, चलो हिमालय की यात्रा पर निकलते हैं. पर उस नादान को भी कौन समझाए कि हिमालय चले तो जाएंगे फिर वापस नहीं आ पाएंगे. वहीं रहकर कुछ नया काम शुरू करना होगा. हालांकि उसके लिए भी पैसे चाहिए होंगे।
फिलहाल तो मेरा सवाल उन बुद्धिजीवियों से ये है कि इंटर्न से नए-नए एम्प्लॉई बने बच्चों की सैलरी उस एम्प्लॉई से ज्यादा कैसे हो सकती है जो पिछले 2 से 3 सालों से आपके यहां काम कर रहा है. जिसकी परफॉर्मेंस हर महीने बेहतर रहती हो. जिसे तारीफें तो पूरे साल मिली पर साल के अंत में अप्रेजल उसे गाली सी लगने लगी. अब वो ईमानदारी से आपके लिए काम क्यों करे? क्यों वो आपके नंबर्स के लिए 9 घंटे से ज्यादा रुके? घर पर अपना सर खपाए? रोज नई स्टोरी के लिए मेहनत करे. टीम वालों का साथ दे. क्योंकि साल के आखिर में जब उसके मेहनत को तोलने की बारी होगी तो एकतरफा होकर सब उसे ही मिलेगा. जिसकी पहुंच ऊपर तक हो. मेरा दूसरा और अहम सवाल ये कि हर साल छंटनी का खेल और कब तक चलेगा. कब तक डर से काम करवाया जाएगा? और जब छंटनी कर ही देते हैं तो फिर अगले 2 महीने बाद अधिक सैलरी पर भर्तियां कैसे होने लगती है? क्या ये सब मिस मैनेजमेंट नहीं?
पूरे साल आप नंबर का दवाब देते हैं. साल तो बहुत लंबा वक्त है. हर हफ्ते नंबर का दबाव बनाया जाता है. नंबर न आने पर सबकी छुट्टियां काटी जाती है. कहने को यहां साल की बहुत सी छुट्टियां है. पर वो मिलें कैसे. कोई एम्प्लॉई ईमानदारी से छुट्टी मांगे तो कह देते हैं वीक ऑफ में एडजस्ट करो. हंसी तो तब आती है जब आप बीमारी के लिए लीव लें और उसे भी वीक ऑफ में एडजस्ट करने के लिए कहा जाता है. ऐसे में अपने मैनेजर से झूठ बोलना यहां अब एक परंपरा बनती जा रही है. वर्क कल्चर यहां अब खत्म होता जा रहा है. स्टोरी कैसी होनी चाहिए, नए आइडिया, या लाइन लेंथ तैयार करने से ज्यादा अब यहां पर लोगों का ध्यान नंबर ऑफ स्टोरी पर रहता है. लगता है कि अब यही सही तरीका है हिमालय तो नहीं जा सकते बाकी लोगों की तरह हम भी अब सिस्टम पर हिमालय की तस्वीरों को देखेंगे और आनंद लेंगे. थोड़ी काम से राहत और मैनेजमेंट को एक संदेश भी की अब बहुत हुआ गुरु, अगले एक महीने तक तो नंबर नंबर न चिल्लाना. एक सच्चाई ये भी है कि हर साल कुछ ही लोगों को इनाम मिलता है. वो चुनिंदा लोग जिनकी पहचान ऊपर के महकमे तक है.
खैर दिल, दिमाग को इस बात से दिलासा दी जा रही है कि कुछ न से तो कुछ बेहतर ही है. नौकरी बची हुई है. जैसे तैसे ही सही पेट मार कर जी तो रहे हैं. समाज में सम्मान तो है कि देखो पत्रकार हैं पर मालिकों ये ध्यान तो रखिए कि मकान मालिक भी यहां 10 प्रतिशत वसूलता है.
अगर इस आर्टिकल को कोई उच्चस्तरीय अधिकारी पढ़ रहा है. तो ध्यान दे कि अंदरखाने में कुछ भी सही नहीं है. अधिकतर मैनेजर्स आपको बस बेवकूफ बना रहे हैं ताकि उनकी नौकरी पर आंच न आए. अगर नंबर के आधार पर ही छंटनी होती है, तो पहले आप मैनेजर से सवाल पुछिए की उसने पूरे एक साल तक अपने एम्पलॉई को इस काबिल भी नहीं बनाया की वह संस्थान के काम को समझ सके. फिर दूसरा सवाल उस एम्पलॉई से पूछिए की आप को किस तरह की स्टोरी दी गई साल भर करने के लिए. अपने फेवरेट को सॉफ्ट स्टोरी देकर उनके नंबर्स हाई रखने की परंपरा मीठे जहर की तरह ही है.
यकीं न हो एक दिन एक ऑनलाइन टेस्ट करवाईए. जिसमें राजनीति के 100 चेहरे दीजिए उनसे नाम पुछिए. टेस्ट सबका अलग हो. प्रदेश वालों को प्रदेश के नेता और राष्ट्रीय वालों को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय नेता. कुछ एमसीक्यू प्रश्न भी आज की राजनीति को लेकर. यकीन मानिए कितनों की भैंस में पानी है सब पता चल जाएगा.
महोदय, ये सिर्फ मेरी पीड़ा नहीं, उन तमाम लोगों की पीड़ा है जो पिछले 2 से 3 सालों पहले इस संस्था से जुड़े और ईमानदारी से काम करने के बाद भी उनकी स्थिति दयनीय है. सारे टारगेट पूरे होने के बाद भी अप्रेजल के नाम पर चंदा पकड़ाया जाता है.
(एक पत्रकार द्वारा भेजे गये पत्र पर आधारित)
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बदल रहा भारत
June 21, 2024 at 6:04 pm
सरकारी मुलाजिम बनना है क्या zee का इतनी अच्छी performance है तो जॉब change कर लो 30 to 40 peecent का jump mil जाता है.